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दुबई की एक अजीब प्रजाती

 

दुबई घूमके वापस आ गया हूँ. अपने एक्सपीरियेन्स का ब्लॉग लिखूंगा, फोटोस भी शेयर कर दूँगा. पर 4 घंटे की फ्लाइट में कुछ हिन्दी में लिखने की इच्छा हुई. हिन्दी शुरू से कमज़ोर है. दसवीं में हिन्दी के अलावा बाकी सब सब्जेक्ट्स में डिस्टिंक्शन मिला था. ख़ैर इसका दुबई की एक अजीब प्रजाती से कोई लेना-देना नहीं जिसके बारे में ये ब्लॉग लिख रहा हूँ.

इस अजीब प्रजाती के लोग दुबई में हर जगह आसानी से दिखेंगे पर ये अजीब इसलिए हैं क्योंकि समझ नहीं आता ये लोग आख़िर हैं कौन? ना ये हिन्दुस्तानी हैं, ना पाकिस्तानी हैं और ना ही बांग्लादेशी. ना ये हिंदू हैं ना मुसलमान. ना तमिल हैं और ना ही मराठी. ऐसा मैं इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि जितना राज़ी-खुशी ये लोग साथ में रहते हैं और काम करते हैं उतना कोई हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी सपने में भी नहीं रह सकता. बात-बात पर दूसरों को पाकिस्तान भेजने वाले ये सब देख लें तो उनका दिल ही टूट जाए. इस ‘लापता’ प्रजाती की सोसाइटी इतना घुल-मिल गई है जैसे इन्हें इंसान और इंसान में कोई फ़र्क का पता ही ना हो. भला ये भी कोई बात हुई?

आमतौर पर मॉल में सफाई करते, रेस्टोरेंट में वेटर का काम करते, किसी कन्स्ट्रक्शन साइट पर मज़दूरी करते, टेक्सी चलाते या फिर किसी बड़े से स्टोर में सेल्समेन का काम करते हुए इस प्रजाती के लोग एक से ही लगते हैं. इन्हें हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी, हिंदू-मुसलमान, तमिल-मराठी के साँचे में डालने की इच्छा भी नहीं होती. और भला हो भी क्यों? इन सबकी कहानी एक ही है. ये सब अपने लीडरों और हुक़्मरानों की नाकामी का बोझ अपने कंधों पर लिए अपनी ज़मीन से और अपनों से एक समंदर दूर रहने को मजबूर हैं. हाँ, अपने यहाँ एयरपोर्ट पर या इमिग्रेशन की लाइन में सहमे-सहमे से इस प्रजाती के लोग अलग दिख ही जाते हैं.

वापस आकर वन्दे मातरम पर चल रही डिबेट देखी, 2-3 राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं को सुना और बंबई में ‘बाहरी बिहारियों’ की पिटाई की ख़बरें पढ़ीं तो थोड़ा नॉर्मल फील हुआ. इंसान और इंसान का फ़र्क वापस याद आ गया.

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